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Saturday 28 January 2017

Raees Review : बॉलीवुड की पुरानी शराब को नयी बोतल में डालकर दर्शको को पिलाने की आदत



Alert : Containing Spoilers

निर्देशक- राहुल ढोलकिया  
निर्माता-  रितेश सिधवानी,फरहान अख्तर, गौरी खान  
लेखक-  राहुल ढोलकिया,आशीष वाशी, नीरज शुक्ल, हरित मेहता      
कलाकार-  शाहरुख़ खान, माहिर खान, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी,नरेन्द्र झा     
संगीत-  राम संपत  
Cinematography- के यू मोहनन
एडिटर- दीपा भाटिया
रिलीज़ 25 January 2017
Running time- 1
42 minutes
Country-    India
Language- Hindi

शाहरुख़ का पिछला साल कुछ ख़ास अच्छा नहीं रहा था, शायद इस वज़ह से इस साल की शुरुआत में ही उन्होंने अपने रूटीन फिल्म स्टाइल से अलग कुछ दिखाने की सोची है! रईस इसी सोच का परिणाम है!

Cinematography- काफी बढ़िया है! फिल्म के अन्दर एक्शन, रोमांस के सीन ज्यादा तो नहीं हैं..लेकिन जितने भी कैप्चर हुए हैं, ठीक ठाक हैं! मुख्य माहौल है शराब के कारोबार को दिखाया जाना, उसमे किस तरह से संगठनों को कम से कम समय में ज्यादा बड़े लेवल पर कैप्चर किया जाए उसमे मोहनन कामयाब रहे हैं!
दीपा भाटिया की एडिटिंग अच्छी है! उन्होंने फिल्म को करीब 2 घंटे में पूरी तरह से खुलकर दिखाया है, जिसमे हर सीन सिर्फ उतना है जितनी उसकी जरूरत है! फिल्म तेज़ है और लगभग बीचो बीच ही शाहरुख़ के किरदार को स्थापित कर दिया जाता है! जिससे आगे उसको उभारने का पर्याप्त समय मिल जाता है!

Songs- फिल्म के गाने औसत दर्जे के हैं! लैला-लैला जो सनी लियॉन पर फिल्माया गया है वो सिर्फ अकेला आकर्षण है!
Acting- शाहरुख़ खान और नवाजुद्दीन एक्टिंग के मामले में सबसे टॉप के कलाकारों में हैं! दोनों ने अपना काम पूरी ईमानदारी से किया है!
माहिरा खान जरूर फिल्म का कमजोर पहलु रही है! माहिरा खान को फिल्म में गलत कास्ट किया गया है! इसकी वज़ह उनका कम उम्र होने के साथ इस रोल के लिए जो mature अनुभवी एक्टिंग चाहिए थी, उसमे फिट ना होना है! रईस बने हुए शाहरुख़ के साथ उनके रोमाटिक सीन भी वैसे उभर नहीं पाते...जिसके लिए शाहरुख़ जाने जाते हैं!
फिल्म में बाकी सभी कलाकार ज्यादा बड़ा फुटेज नहीं रखते हैं! सबका काम ठीक ठाक रोल निभाने तक ही रहा है!

Story and Direction - फिल्म की कहानी वही पुराने ढर्रे पर चलने वाली  जरायम पेशा ज़िन्दगी अपनाने वाले एक  व्यक्ति की है, जो बहुत बार देखी जा चुकी हैं! इसमें नयापन सिर्फ यह है कि भारतीय परिवेश में गुजरात और वहां से एक मुस्लिम किरदार को मुख्य रोल में दिखाया गया है, जो खालिस इस्लामिक संस्कृति को मानता है! SRK चेहल्लुम और अन्य धार्मिक कार्यों में काफी करीबी से शामिल दिखाए जाते हैं! काजल लगाए,पठानी सूट पहने, सलीकेदार दाढ़ी और नज़र का चश्मा!
यह मेकओवर उनको पुरानी रोमांटिक इमेज जो कभी राहुल,राज जैसे नामो से उन्होंने बनाई थी, उससे बहुत अलग बना देता है!
गुजरात के मुस्लिम बहुल इलाके में रहने वाला रईस और उसके साथ लगभग पूरा समाज जुड़ा हुआ है!  
रईस की कहानी भारत के 80 के दशक के बाद से शुरू होती है! वैसे गुजरात में शुरू से ही शराबबंदी कागजों पर रही है...लेकिन वहां अवैध शराब के व्यापार पर हमेशा से ही राजनीतिक मेहरबानियाँ होती रही हैं! सरकारें जब खुद किसी धंदे को बंद करना नहीं चाहें तो उस धंधे को सही या गलत बताना ही बेकार है!
शाहरुख़ खान ने एक मुस्लिम युवक का महत्वाकांक्षी रोल निभाया है, जिसको अपनी गरीब माँ से एक ही सीख मिली है कि कोई भी धंधा छोटा नहीं और धंदे से बड़ा कोई धर्म नहीं!
बालमन इस बात को ही ज़िन्दगी का लक्ष्य बना लेता है और शुरू होती है रईस के शराब व्यापार के अवैध कारोबार में नीचे से शिखर तक पहुँचने की कहानी!
फिल्म माफिया और गुजरात प्रदेश के मुख्यमंत्री तक के रिश्तों के बीच की गर्माहट को खुले तौर पर स्वीकार करती है! इसमें विपक्ष की क्या भूमिका रहती है, हर तरह का अवैध कारोबार किस तरह से सरकारी संरक्षण में ही फलते फूलते हैं, सबको करीबी से दिखाया जाता है!
लेकिन फ़िल्मी कहानी में अगर पूरा तालाब शांत बना रहेगा तो बात आगे कैसे बढ़ेगी...इसलिए एक ईमानदार लेकिन अबूझ पहेली का पुलिस अफसर जयदीप मजूमदार (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) को फिल्म में दिखाया जाता है! जो इस पूरे शराब व्यापार पर चोट करने की हसरत तो रखता है लेकिन ना जाने क्यूँ सिर्फ रईस से खार खाए हुए दिखता है! मजूमदार ना तो कभी सरकार में मौजूद इस धंदे वाले बड़े मगरमच्छों को पकड़ने के लिए कोई कोशिश करता है, ना ही दूसरे कारोबारियों के खिलाफ ऐसा कुछ ठोस कर पाता है, जिससे लगे की उसकी ईमानदारी से सिस्टम को कुछ फर्क पड़ता हो!

Conclusion- यह फिल्म उस युवा की कहानी को सामने लाती है जिसका सपना अपने बूते कुछ करने का होता है! अगर वो पढ़ाई करके नौकरी ना पा सका तो कुछ तो करेगा, और वो क्या करेगा यह कोई नहीं जानता है! भारी बेरोजगारी से भरे Self Employment के इस दौर में धंदे को धर्म जो मान ले, उसके बाद कुछ कहने को बचता नहीं!
इस पूरी फिल्म को बनाते हुए निर्देशक ने इस बात का ख़ास ख्याल रखा है कि रईस का किरदार पूरी तरह से ईमानदार दिखाया जाए, शराब कारोबार को इस तरह से दिखाया गया है जैसे वो पानी मिला हुआ दूध बेच रहा हो...जिसकी जांच ना हो जाए इसलिए तिकड़म भिड़ाना पड़ रहा है!
रईस जो कुछ कमाता है, उसका बड़ा हिस्सा अपने आस पास के गरीबो की मदद में लगाता है, उनके विकास के लिए चुनाव भी लड़ता है, विधायक बनने के बाद एक कॉलोनी भी रहने के लिए बनाने की कोशिश करता है!
लेकिन इसके बाद पूरी फिल्म अचानक से निर्देशक ऐसे ट्रैक पर डाल देते हैं जिसकी जरूरत सिर्फ स्क्रिप्ट में लिखे होने की वज़ह से थी, वरना उसका हकीकत से कोई लेना देना नहीं है!
पुलिस की जीत और तथाकथित अपराधी का एनकाउंटर! यह किस्सा लगभग हर उस फिल्म का है, जो जरायम की दुनिया पर बनती है!
यहाँ कमी यह है कि एक पुलिस वाला MLA को मार देता है, जबकि असल ज़िन्दगी में MLA की powers के सामने ऐसा होना मुमकिन नहीं है! यहाँ आश्चर्यजनक रूप से रईस किसी वकील और कानून की मदद नहीं लेता है! शायद कहानी में शाहरुख़ की मौत का सीन दिखाना ही था, इसलिए ऐसा करा गया! लेकिन यह वाजिब तरह से नहीं किया जाता! खुद ही मरने के लिए तैयार हैं, खड़े होते हैं कि आओ गोली मार दो, और चले जाओ!
कुल मिलाकर फिल्म को जबरदस्ती का इमोशनल ड्रामा अंत में बनाया गया! जिससे दर्शक रईस के लिए और ज्यादा सहानुभूति महसूस कर सकें! लेकिन निर्देशक यह भूल जाते हैं कि यही शाहरुख़ खान अपनी डॉन जैसी फिल्मों में जिंदा रहकर भी आज की अपराध की दुनिया की  सच्चाई सामने ले आते हैं! फिल्म का अंत intentional है ना की स्वाभाविक!

Entertainment के लिए भी अगर यह फिल्म देखना चाहते हैं तो फिल्म कुछ हद तक कामयाब रहती है अगर आप टिपिकल मुम्बैया बॉलीवुड से अलग शाहरुख़ को देखने की इच्छा रखते हो! पूरी फिल्म अकेले शाहरुख़ के ही कंधे पर है! नवाज़ुद्दीन का रोल बीच बीच में SRK के तिलिस्मी व्यापार में सिर्फ ब्रेक मारने आता है! लेकिन ठीक ठाक है!

फिल्म क्यूँ देखें-
SRK को रोमांटिक भूमिकाओं से अलग एक नए अवतार में देखने की इच्छा अगर हो, या गुजरात जो की एक ड्राई स्टेट कहा जाता है,वहां की राजनीति किस तरह से गांधीजी के नाम को आज भी बदनाम कर रही है,उसपर एक नज़र मारनी हो तो आराम से एक बार यह फिल्म देखी जा सकती है!    

My Ratings- 3/5

फिल्म की कहानी में कमियां ऐसी हैं नहीं जो फिल्म को कोई नुक्सान पहुंचाए! क्लाइमेक्स जरूर बहुत से लोगों को पचाने में मुश्किल आ सकती है! क्यूंकि फिल्म अंत में यह दिखाती है कि शाहरुख़ अपराध करके भी हीरो हैं..जबकि नवाज़ ईमानदार होकर भी विलेन हैं!

Friday 27 January 2017

Kaabil Review : कहानी अगर काबिल लेखक की चुनी जाए तो फिल्म का नाम काबिल रखने की जरूरत नहीं





Alert : Containing Spoilers

निर्देशक- संजय गुप्ता
निर्माता- राकेश रोशन
लेखक- संजय मासूम,विजय कुमार मिश्रा     
कलाकार- ऋतिक रोशन, यामी गौतम, रोनित रॉय, रोहित रॉय     
संगीत- राजेश रोशन
Cinematography-सुदीप चटर्जी अयानंका बोस
एडिटर- अकिव अली
रिलीज़ 25 January 2017
Running time- 139 minutes
Country-    India
Language- Hindi


पिछले साल मोहनजोदड़ो के बाद इस साल ऋतिक रोशन ने इस कम बज़ट की फिल्म से अपने फैन्स को कुछ नया देने की कोशिश करी है! आइये देखते हैं फिल्म के अन्दर क्या क्या मिलता है!

Cinematography सिर्फ गानों तक अच्छी लगती है, बाकी पूरी फिल्म में कहीं भी अतिरिक्त मेहनत नज़र नहीं आती है! सीन सपाट तरह से सिर्फ कहानी कहने तक ही कैप्चर किये गए हैं!
एडिटिंग का हाल भी ऐसा ही है, फिल्म को दो घंटे से ऊपर बनाने के बाद भी इतनी तेज़ी से भगाया जाता है, कि अंत में आप खुद समझ जायेंगे कि फिल्म का अंत किसी तरह हो जाए बस यही आखिरी इच्छा निर्देशक ने करी होगी! ऐसी एडिटिंग हुई है कि फिल्म ही दो अलग हिस्सों में बाँट दी जाती है!

Songs - ठीक ठाक हैं! 
Acting - ऋतिक रोशन के कंधो पर पूरी फिल्म का भार टिका हुआ है! यहाँ पर ऋतिक 2 फेज में नज़र आयेंगे!
पहला उनका यामी गौतम के साथ जो रोमांटिक हिस्सा है!
दूसरा उनका बदला लेने के लिए दिखाया गया ड्रामा है!
ऋतिक पहले हिस्से में उर्जा से भरपूर हैं! एक अंधे व्यक्ति की ज़िन्दगी में जो छोटे छोटे पल रोजमर्रा आते हैं, वो सिर्फ पहले हिस्से में देखने को मिलता है! जिसको ऋतिक अच्छे से निभाते हैं!
दूसरा हिस्सा सिर्फ दुखदीन चेहरे से जो सोचा है, वही होता जा रहा है टाइप का सिंपल फंडे पर चलता है! ना तो किरदार को कुछ ज्यादा एफर्ट लगाने की जरूरत पड़ती है और ना कलाकार को! दोनों ही  निर्देशक के कहने पर सपाट तरह से चले जाते हैं!
यामी गौतम के हिस्से में अंधी लड़की का जो किरदार आया है, वो उन्होंने बखूबी निभाया है! कई मायने में ऋतिक से वो पीछे नहीं कही जायेंगी! उनका मासूम चेहरा और फिल्म में उनके किरदार के साथ जो होता है, दोनों ही बातें देखने वालों को फिल्म से जल्दी लिंक कर देती हैं! यामी का किरदार जो फिल्म के लिए धुरी का काम करता है!
रोनित रॉय- बीच बीच में नज़र आते हैं और आधे शब्द मराठी और आधे हिंदी में खिचड़ी धमकियाँ देकर सीन ख़त्म कर देते हैं!
रोहित रॉय- एक बलात्कारी के रोल के लायक ही रह गए हैं!


Story and Direction - अब बात इस फिल्म को बनाने के लिए निर्देशक ने जो किया उसपर!

फिल्म जिस तरह से शुरू होती है, पहले ही सीन से यह मानवीय संवेदनाओं को जगा देती है! एक अकेला रहने वाला अँधा व्यक्ति जो अपने पैरो पर खड़ा है,ज़िन्दगी के संघर्षो में सीना तानकर खुद भी चल रहा है और अपने आस पास के लोगों को भी चलवा रहा है! लेकिन ज़िन्दगी अकेली ना रह जाए इसलिए परिचितों के कहने पर एक अंधी लड़की से शादी के लिए मिलता है! शुरूआती हिचक के बाद दोनों करीब आते हैं और शादी हो जाती है!
यहाँ तक की कहानी बहुत अच्छे से कसी हुई तरह से दिखाई जाती है! लेकिन इसके बाद जो कहानी का असल मुद्दा शुरू होता है, वो एक बार बिखरता है तो अंत तक उसमे कहीं भी रोकथाम निर्देशक कर नहीं पाते!
लेकिन यह बिखराव क्यूँ है, इसके पीछे जो अहम बातें हैं, उनको समझने के लिए फिल्म के सह-कलाकारों पर एक नज़र डालनी जरूरी है!-
सुरेश मेनन जो फिल्म में जफ़र नाम के किरदार में हैं और ऋतिक के दोस्त बने हैं!
मिसेज़ मुखर्जी नाम की एक (गैरमौजूद) कॉमन आंटी जो फिल्म में यामी और ऋतिक के बीच मुलाकात फिक्स करवाती हैं  और जिनके यामी के ऊपर बहुत सारे एहसान मौजूद हैं!
वो सारी (गैरमौजूद) आंटियां जो यामी-ऋतिक की सुहागरात की सारी डिटेल अगले दिन यामी से लेती हैं! और ना जाने कितने परिवार जो कई सालों से ऋतिक के घर के आस पड़ोस में रहते हैं!

फिल्म का मुख्य खलनायक अमित शेल्लर (रोहित रॉय) गणपति का बहुत बड़ा भक्त है, जिस गणपति यात्रा में वो एक मुहं से गणपति बाप्पा मोरया के नारे लगाकर दिखा रहा है कि वो बहुत बड़ा हिन्दू धार्मिक व्यक्ति है, उसी मुहं के कुछ इंच ऊपर मौजूद आँखों से यात्रा के पास खडी एक अंधी लड़की के लिए हवस भरी नज़र भी रखता है!
फिल्म के निर्देशक इस छोटी से दृश्य में बहुत कुछ अनकहा भी कह जाते हैं! शेल्लर का एक मुस्लिम दोस्त है वसीम जो एक कसाई का बेटा है! दोनों के बारे में इलाके को सबकुछ पता है, लेकिन फिर भी इलाके में बैठकर यह लोग लड़कियां छेड़ते हैं, उनपर फब्तियां कसते हैं!
यह निर्देशक का खोजा हुआ एक कमाल का इलाका है, जहाँ घरों में मौजूद दूसरे लड़के शायद चूड़ियाँ पहने रहते हों..क्यूंकि पूरी फिल्म में यह इलाका और इसके लोग गायब हैं!
आगे सुनिए- फिल्म में पहली बार यामी का रेप होता है, घर पर पुलिस तो आती है, लेकिन मोहल्ले से एक औरत भी घर में हालचाल पूछने नहीं आती....यह कमाल तब है जब मोहल्ले वाले इससे ठीक कुछ दिन पहले दोनों की शादी के बाद गृह प्रवेश के लिए भीड़ लगाए जुटे हैं! ऋतिक के दोस्त सुरेश मेनन को निरोध लाकर देने के लिए याद हैं, लेकिन उसकी 3 बेगमों में से एक भी रेप के बाद नई भाभी को दिलासा दे दें, ऐसा करने की याद ना आई!
यह जो जबरदस्ती का सन्नाटा बनाया जाता है, वो तब और ज्यादा अखरता लगता है, जब दर्शक वापस याद करते हैं कि दोनों ही किरदार अंधे हैं, मोहल्ले वालों का कॉमन सेंस यहाँ पर निर्देशक गायब कर देते हैं! इसके बाद गुंडे 24 घंटे के लिए यामी-ऋतिक को गायब कर देते हैं, तब भी कोई परिचित घर में नहीं आता...अँधा ऋतिक अकेले पुलिस से जूझ रहा है, वो मिसेज़ मुखर्जी जिनके एहसानों के नीचे यामी दबी हुई है, वो सुहागरात की अपडेट लेने वाली आंटियाँ सब गायब हैं! इस सन्नाटे को दर्शक झेलकर आगे बढ़ते हैं, तो पता चलता है कि पहले रेप के तीसरे या चौथे ही दिन दोबारा रेप हो गया है, और यामी ने आत्महत्या कर ली है! अचानक से सुरेश मेनन से लेकर सारे दोस्त रिश्तेदार परिचित सब ना जाने कहाँ से बाहर फुदक कर निकल आते हैं और यामी की शवयात्रा से लेकर अंतिम संस्कार तक कर डालते हैं!  
मतलब आपके साथ कुछ बुरा हो जाए, उसके बाद दिलासा देने ना सही,कानूनी सहायता के लिए, घर में अंधी लड़की की सुरक्षा के लिए एहतियात के तौर पर कोई ना दिखे, लेकिन आपके मरने के बाद भीड़ मौजूद होगी इसकी पूरी गारंटी फिल्म के निर्देशक दे देते हैं!
मोहल्ले में हुई इतनी बड़ी घटना की खुसुर-पुसुर तो क्या भनक तक किसी को हुई हो ऐसा कहीं भी नहीं लगा...पुलिस ऋतिक के घर आ रही है..जा रही है...क्यूँ आई...क्यूँ गई....इसका ना तो लोगों को पता चल रहा है...ना फिल्म में कोई मीडिया मौजूद है! एक अंधे के केस के लिए मीडिया और NGO पुलिस के पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे यह पुलिसवाला खुद एक डायलाग में कह रहा है.....लेकिन यामी के केस की फाइल सिर्फ एक हफ्ते में बंद करके बैठ जाती है!   रेप हुआ यह नहीं पता लेकिन रेप की वज़ह से जनता के वोट नहीं मिलेंगे..यह माधवराव शेल्लर (रोनित रॉय) को पता है! दोनों बातें आपस में ही एक दूसरे को काट रही हैं! 

फिल्म की कहानी लिखने वाले ने कोई ख़ास मेहनत करी नहीं है!
कहने का मतलब यह है कि दिमाग घर पर छोडिये और यह मान लीजिये कि जैसी कहानी निर्देशक दिखा रहे हैं, वही दुनिया का अंतिम सत्य है! ना उससे आगे सोचिये ना पीछे!

Conclusion- काबिल में ना तो निर्देशक ने कोई काबिलियत दिखाई है और ना लेखक ने कोई शाबासी लायक काम किया है! पत्नी से हुए Rape-Revenge ड्रामा पर इससे बेहतर फिल्म अमिताभ की आखिरी रास्ताथी, कम से कम वहां कहानी में जगह जगह इतने खड्डे नहीं थे, कि उसमे दर्शक नहीं गिरेंगे इसके लिए नायक और नायिका का अँधा होना जरूरी लगा हो!

काबिल करोडो में एक अंधे व्यक्ति की कहानी को सामने रखती है, वो भी इस तरह से जैसे इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता मौजूद ना हो! अंधे ऋतिक बड़ी बड़ी प्लानिंग कर रहे हैं, प्लानिंग का पहला सीन घर में होता है, दूसरा फ़ोन बूथ के अन्दर और तीसरा घटना की जगह पर होता है! अंत का क्लाइमेक्स और गज़ब तरह से लिखा गया है- ऋतिक पैडल मारकर साइकिल पर घर से निकल जाते हैं, उससे पहले वो एक फ़ोन करते हैं, पुलिस वाले पहले से इनपर शक किये हुए हैं, घर के बाहर भी आदमी तैनात हैं पर फ़ोन किसको किया, क्यूँ किया, इसपर ध्यान नहीं है...जबकि ऑफिसर चौबे का पूरा केस ही फ़ोन डिटेल्स पर टिका हुआ है!

ऋतिक शुरू में खुला चैलेंज देकर निकलते हैं, तब पुलिस उसपर नज़र रखने के लिए नहीं सोचती! कई जगह क़त्ल करने के बाद भी एक भी फिंगर प्रिंट का निशान नहीं लेती, हत्याओं के लिए ऋतिक के खरीदे सामान कहाँ से आये, घटनास्थल पर मौजूद चीज़ें, इनके बीच कोई लिंक पुलिस नहीं कर रही! लेकिन ऑफिसर चौबे पूरी तरह से ऋतिक के खिलाफ सबूत खोजने में लगे हैं, यह दर्शको को पता है! अगर दर्शक सही हैं तो चौबे नौटंकी कर रहे थे और अगर चौबे सही थे तो दर्शको ने गलत तफ्तीश होते देखी है!
 
यहाँ कुछ भी बस दिखाने से मतलब था,फिल्म जल्द ख़त्म हो जाए इसलिए!


ऋतिक अंधे हैं, इसलिए फिल्म काबिल कैसे है? जबकि फिल्म में उनके पास मिमक्री का ऐसा जबरदस्त हुनर मौजूद है, जिसके ऊपर ही पूरी कहानी में एक अंधे का Revenge ड्रामा टिका हुआ है?
अगर ऋतिक के पास मिमक्री का हुनर ना होता तो यहाँ कोई Plan B ऋतिक के पास नहीं है! यह इस फिल्म का सबसे बड़ा नेगेटिव पॉइंट  है! अंधे व्यक्तियों को इस फिल्म से क्या सन्देश मिला? उनको क्या हौंसला मिला? इसका कोई जवाब फिल्म में नहीं है! हर अँधा व्यक्ति कानून से नाउम्मीद होकर मिमक्री नहीं कर सकता है! यहाँ कानून बार बार हम लिख रहे हैं लेकिन सिर्फ पुलिस मौजूद है...वकील नाम की एक भी चीज़ पूरी फिल्म में नहीं है! रेप हुआ है, वकील होना जरूरी है, केस हुआ है, केस करने के लिए वकील जरूरी है! पुलिस ने पूरा केस ही सबूत ना होने के नाम पर बंद कर दिया..पर इसके लिए भी वकील जरूरी है!
फिल्म में इधर का या उधर का वकील कौन था...किसी ने देखा हो तो कृपया बताये?
अंधे होना गुनाह नहीं है, पढ़े लिखे दोनों नायक-नायिका हैं पर पता नहीं यह फिल्म अन्धो को दिमाग से भी पैदल दिखाने की कोशिश तो नहीं है!
फिल्म एक बार फिर से पुलिस विभाग देश का सबसे नाकारा और निकम्मा महकमा है, यही बताती है! पुलिस ऑफिसर चौबे (नरेन्द्र झा) यह दिखाते हैं कि पुलिस सिर्फ तभी आपके काम आयेगी जब आपकी जेब में माल होगा, वरना आपकी ज़िन्दगी की कोई कीमत नहीं है!

Entertainment के लिए भी अगर यह फिल्म देखना चाहते हैं तो ऐसा कुछ मिलेगा नहीं जिसको बताकर आप कहें कि यह हिस्सा देखकर मज़ा आया था! ऋतिक का स्टारडम इस फिल्म के छोटे बज़ट को बॉक्स ऑफिस पर बचा ले जाएगा...लेकिन ऋतिक को अपने नाम के हिसाब से मजबूत कहानियां चुनना शुरू करना जरूरी है!  

फिल्म क्यूँ देखें- ऋतिक के बड़े फैन हैं, अच्छे-बुरे काम से फर्क ना पड़ता हो, या किसी दूसरी फिल्म को देखने की इच्छा ना हो, या किसी तरह की प्रतियोगिता में एक पक्ष का पलड़ा भारी करना हो तो जरूर थिएटर जाएँ!

My Ratings- 2.5/5

फिल्म की tagline है कि "दिमाग सबकुछ देखता है"
लेकिन दर्शक जब फिल्म देखते हैं तो पता चलता है कि बनाने वाले ने दिमाग का इस्तेमाल किया ही नहीं है, उसका कहना है दिमाग सब कर रहा है, फिल्म में पता चल रहा है कि आवाज़ सब कर रही है! इस गडबडझाले को समझने में ज्यादा दिमाग खपाना भी बेकार है!
इस फिल्म की असल रेटिंग 2/5 से ज्यादा नहीं है, सिर्फ यामी गौतम के काम और मानवीय संवेदनशीलता पर एक अधूरा प्रयास ही सही  पर फिल्म बनाने के लिए 0.5 अतिरिक्त!