Overall rating | 1.3 | |
story | 1.5 | |
artwork | 1.0 |
कवर पर 10 सिर वाला डोगा..कॉमिक का नाम “रावण डोगा”..अगर पाठक यह सोचे की कहानी का लिंक किसी प्राचीन युग में घटी किसी घटना से है..जिसके तार आज डोगा से जुड़ गए हैं..तो यह 100 % गलत निकलेगा..ऐसा कुछ नहीं है!
कहानी का नाम और असली कहानी आपस में कोई मेल नहीं रखते...रावण डोगा का यह निरर्थक और सनसनीखेज नाम पाठको को एक पल के लिए आकर्षित करने की कोशिश के तहत मिला है..और इसकी कुछ वज़हें हैं जो आप आगे जानेंगे कि क्यूँ?
कहानी का केंद्र है...मुंबई...जिसमे छोटे-बड़े स्तर पर चल रहे हैं कई अवैध फाइट क्लब्स, जिनमे होने वाली खूनी जंगें..लड़ाइयाँ..जिनकी वज़ह से युवा वर्ग में अराजकता फैली हुयी है...इसमें डोगा समाज के कुछ बड़े और आदरणीय समाज सेवियों को मारता/अपहरण करता नज़र आता है...जिसकी वज़ह से उसकी कार्यप्रणाली प्रश्नचिन्ह के घेरे में है! इस बीच “लायन डेन” बंद और घनिया चाचा का एक होनहार शिष्य “रॉकी” पागलखाने में जा चुका है..और हर 4 पेज पर एक नयी फाइट शुरू हो जाती है...कहानी क्रमशः
लेखकों में अभी (2013) भी डोगा के लिए ऐसे repeated और घिसे पिटे story plots लिखते रहने की रूचि बाकी है...बहुत आश्चर्य की बात है...गली मोहल्ले में चलते फाइट क्लब्स का आईडिया सालो पहले सुपर कमांडो ध्रुव की “कमांडो फ़ोर्स” के जमाने में आता था..कहानी में थोड़ी सी हेर-फेर करके किसी किसी दूसरे हीरो को रखकर एक नयी कहानी लिख देने की प्रवृति अब लेखकों को छोड़ देनी चाहिए..यह कलाकारी पाठको पर काफी पहले उजागर हो चुकी है!
रावण डोगा में लेखकों को कहानी का सस्पेंस बचाए रखने में भी मशक्क़त करनी पड़ती है...रॉकी का पागल होना और ब्लैक टर्र्रमिनेटर का नज़र आना आपस में जुडी बातें...डोगा के बड़े बड़े शिकार ही बड़े बड़े मगरमच्छ हैं..दूसरी बड़ी बात! दुनिया में समय कितना बदल चुका है ...कहानियां कहाँ से कहाँ पहुँच गयीं...प्रोफेशनल लेखक एक से एक नए आईडिया लिखते हैं....की पढने वाला अपना दिमाग घुमा चुका होता है..वहीँ इस तरह बीच में ऐसे कांसेप्ट मिलना बहुत अखरने वाली चीज़ है!
यानी पाठक को शुभस्य शीघ्रम पढने की क्या वज़ह लेखक देना चाहेंगे?? सिर्फ इतना की कहानी का आधा हिस्सा उसमे है...अफ़सोस!
बहरहाल रावण डोगा की तरह 46-46 पेज की २ कहानियां अलग अलग आती हैं..तो उनकी बर्बादी निश्चित है...अगर यह सिंगल शॉट कॉमिक बनती..और सम्पादन पर थोडा ध्यान दिया जाता..तो कहानी थोडा मनोरंजन दे सकती थी...लेकिन ऐसा हुआ नहीं! कहानी के डायलॉग्स में कोई नयापन नहीं है !अगर 46 पेजेज को पढना भारी लगने लगे..इतना काफी है समझने के लिए कि लेखक को पाठको के मनोभाव परखने में त्रुटि हुई है !
आर्टवर्क-
रावण डोगा का चित्रांकन और भी ज्यादा निराशाजनक है..सिद्धार्थ पंवार(पेंसिल) और संजीव शर्मा (इंकिंग) ने दोयम दर्जे का काम रावण डोगा में किया है...आर्टवर्क की ऐसी मिटटी-पलीत हाल फिलहाल किसी कॉमिक्स में नज़र नहीं आती..वो भी तब जब डोगा एक बड़ा हीरो है.. और एक फिल्म भी उसपर बनने वाली है... उसके साथ ऐसा व्यवहार दर्दनाक है! यदि किसी नए पाठक ने “रावण डोगा” को उठाकर देख लिया तो बड़ा की नकारात्मक असर पड़ेगा..क्यूंकि आज कला के क्षेत्र बहुत विस्तृत है..कामचलाऊ चीज़ें बाज़ार में ज्यादा टिकती नहीं! आर्टवर्क इस तरह समझा जा सकता है..की अगर कॉमिक्स में कलरिंग ना होती..तो कोई भी कॉमिक्स में जान नहीं पायेगा..की कौन सा किरदार किस फ्रेम में खड़ा है!
रंगरेज़ (रंग संयोजन) की हालत वही है..औसत से नीचे बने चित्रांकन पर रूखी-सूखी फ्लैट कलरिंग...वैसे यह ख़ुशी की बात ज्यादा लगी..कि कलरिस्ट ने “रावण डोगा” पर इफेक्ट्स देने में अपना कीमती समय बर्बाद नहीं किया...कहानी और आर्टवर्क की हालत जब दोयम दर्जे की हो..तब रंगों को A+ क्वालिटी का रखना अक्लमंदी थी भी नहीं !
रावण डोगा पढने की कोई एक ठोस वज़ह किसी को मिले तो जरूर बताये!
शुभस्य शीघ्रम